चैत्र नवरात्रि 2023 | Chaitra Navratri 2023

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चैत्र नवरात्री के दिन घट स्थापना – मुहूर्त एवं पूजन विधि

चैत्र नवरात्रि प्रथम दिन – बुधवार 22 मार्च 2023

चैत्र नवरात्रि सभी चारों नवरात्रों में विशेष महत्व रखता है। आमतौर पर साल में चार चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ नवरात्र माने गए हैं। जिसमें चैत्र नवरात्रि को विशेष महत्व दिया गया है, क्योंकि भारतीय नववर्ष चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से ही प्रारंभ होती है। इस वर्ष चैत्र नवरात्रि बुधवार, 22 मार्च 2023 से लेकर गुरुवार, 30 मार्च 2023 तक रहेगी।

नवरात्रि के नौ दिनों में मां के अलग-अलग रुपों की पूजा को शक्ति की पूजा के रुप में भी देखा जाता है।

चैत्र नवरात्रि महत्व माता शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्रि देवी दुर्गा के नौ अलग-अलग रुप हैं।

हिन्दू शास्त्रों में किसी भी पूजन से पूर्व, भगवान गणेशजी की आराधना का प्रावधान बताया गया है। माता जी की पूजा में कलश से संबन्धित एक मान्यता है के अनुसार कलश को भगवान श्री गणेश का प्रतिरुप माना गया है। इसलिये सबसे पहले कलश का पूजन किया जाता है। कलश स्थापना करने से पहले पूजा स्थान को गंगा जल से शुद्ध किया जाना चाहिए। पूजा में सभी देवताओं आमंत्रित किया जाता है। कलश में सात प्रकार की मिट्टी, सुपारी, मुद्रा रखी जाती है। और पांच प्रकार के पत्तों से कलश को सजाया जाता है। इस कलश के नीचे सात प्रकार के अनाज और जौ बौये जाते है। जिन्हें दशमी की तिथि पर काटा जाता है। माता दुर्गा की प्रतिमा पूजा स्थल के मध्य में स्थापित की जाती है।

कलश स्थापना के बाद, गणेश भगवान और माता दुर्गा जी की आरती से, नौ दिनों का व्रत प्रारंभ किया जाता है। कई व्यक्ति पूरे नौ दिन तो यह व्रत नहीं रख पाते हैं किन्तु प्रारंभ में ही यह संकल्प लिया जाता है कि व्रत सभी नौ दिन रखने हैं अथवा नौ में से कुछ ही दिन व्रत रखना है।

चैत्र नवरात्रि 2023 की तिथियां

चैत्र नवरात्रि घटस्थापना – 06:16 से 07:30 – अवधि 01 घण्टा 14 मिनट्स

प्रतिपदा तिथि प्रारम्भ – 21, मार्च 2023 को 22:52 बजे

प्रतिपदा तिथि समाप्त – 22, मार्च 2023 को 20:20 बजे

22 मार्च 2023, बुधवार – चैत्र नवरात्रि प्रारंभ, घटस्थापना

23 मार्च 2023, गुरुवार – चैत्र नवरात्रि के दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की पूजा की

24 मार्च 2023, शुक्रवार – चैत्र नवरात्रि के तीसरे दिन मां चंद्रघंटा की पूजा की

25 मार्च 2023, शनिवार – चैत्र नवरात्रि के चौथे दिन मां कुष्मांडा की पूजा

26 मार्च 2023, रविवार – चैत्र नवरात्रि के पांचवे दिन मां स्कंदमाता की पूजा की

27 मार्च 2023, सोमवार – चैत्र नवरात्रि के छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा

28 मार्च 2023, मंगलवार – चैत्र नवरात्रि का सातवें दिन मां कालरात्रि की पूजा

29 मार्च 2023, बुधवार – चैत्र नवरात्रि के आठवें दिन मां महागौरी की पूजा

30 मार्च 2023, गुरुवार – चैत्र नवरात्रि के नौवें दिन में मां सिद्धिदात्री की पूजा

नोट ऊपर दिया गया चौघड़िया मुहूर्त समय नागपुर के स्थानीय सूर्योदय अनुसार है

कलश / घट स्थापना विधि

सर्व प्रथम शुद्धि एवं आचमन

आसनी पर गणपति एवं दुर्गा माता की मूर्ति केसम्मुख बैठ जाएं ( बिना आसन, चलते-फिरते, पैर फैलाकर पूजन करना निषेध है )| इसके बाद अपनेआपको तथा आसन को इस मंत्र से शुद्धि करें –

“ॐ अपवित्र: पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि :॥

इन मंत्रों से अपने ऊपर तथा आसन पर 3-3 बारकुशा या पुष्पादि से छींटें लगायें फिर आचमन करें –

ॐ केशवाय नम: ॐ नारायणाय नम:, ॐ माधवायनम:, ॐ गो​विन्दाय नम:|

फिर हाथ धोएं, पुन: आसन शुद्धि मंत्र बोलें :-

ॐ पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्वं विष्णुनाधृता।

त्वं च धारयमां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥

इसके पश्चात अनामिका उंगली से अपने ललाट पर चंदन लगाते हुए यह मंत्र बोलें-

चन्दनस्य महत्पुण्यम् पवित्रं पापनाशनम्,

आपदां हरते नित्यम् लक्ष्मी तिष्ठतु सर्वदा।

द्वितीय स्थान चयन

नवरात्रि में कलश – घट स्थापना के लिए सर्वप्रथम प्रातः काल नित्य क्रिया से निवृत होने के बाद स्नान करके, नव वस्त्र अथवा स्वच्छ वस्त्र पहन कर ही विधिपूर्वक पूजा आरम्भ करनी चाहिए। प्रथम पूजा के दिन मुहूर्त (सूर्योदय के साथ अथवा द्विस्वभाव लग्न में कलश स्थापना करना चाहिए।

कलश स्थापना के लिए अपने घर के उस स्थान को चुनना चाहिए जो पवित्र स्थान हो अर्थात घर में मंदिर के सामने या निकट या मंदिर के पास। यदि इस स्थान में पूजा करने में दिक्कत हो तो घर में ही ईशान कोण अथवा उत्तर-पूर्व दिशा में, एक स्थान का चयन कर ले तथा उसे गंगा जल से शुद्ध कर ले।

जौ पात्र का प्रयोग

सर्वप्रथम जौ बोने के लिए मिट्टी का पात्र लेना चाहिए । इस पात्र में मिट्टी की एक अथवा दो परत बिछा ले । इसके बाद जौ बिछा लेना चाहिए। इसके ऊपर फिर मिट्टी की एक परत बिछाएं। अब पुनः एक परत जौ की बिछा ले । जौ को इस तरह चारों तरफ बिछाएं ताकि जौ कलश के नीचे पूरी तरह से न दबे। इसके ऊपर पुनः मिट्टी की एक परत बिछाएं।

कलश स्थापना

पुनः कलश में रोली से स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर गले में तीन धागावाली मौली लपेटे और कलश को एक ओर रख ले। कलश स्थापित किये जानेवाली भूमि अथवा चौकी पर कुंकुंम या रोली से अष्टदलकमल बनाकर निम्न मंत्र से भूमि का स्पर्श करना चाहिए।

ॐ भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धरत्री।
पृथिवीं यच्छ पृथिवीं द्रीं ह पृथिवीं मा हि सीः।।

कलश स्थापन मंत्र

ॐ आ जिघ्न कलशं मह्यं त्वा विशंतिवन्दवः।
पुनरूर्जा नि वर्तस्व सा नह सहत्रम् धुक्ष्वोरूधारा पयस्वती पुनर्मा विशताद्रयिः।।

पुनः इस मंत्रोच्चारण के बाद कलश में गंगाजल मिला हुआ जल छोड़े उसके बाद क्रमशः चन्दन, सर्वौषधि(मुरा, चम्पक, मुस्ता, वच, कुष्ठ, शिलाजीत, हल्दी, सठी) दूब, पवित्री, सप्तमृत्तिका, सुपारी, पञ्चरत्न, द्रव्य कलश में अर्पित करे। पुनःपंचपल्लव(बरगद, गूलर, पीपल, पाकड़, आम) कलश के मुख पर रखें।अनन्तर कलश को वस्त्र से अलंकृत करें। तत्पश्चात चावल से भरे पूर्णपात्र को कलश के मुख पर स्थापित करें।

कलश पर नारियल की स्थापना

इसके बाद नारियल पर लाल कपडा लपेट ले उसके बाद मोली लपेट दें। अब नारियल को कलश पर रख दे । नारियल के सम्बन्ध में शास्त्रों में कहा गया है:

“अधोमुखं शत्रु विवर्धनाय, ऊर्ध्वस्य वस्त्रं बहुरोग वृध्यै।
प्राचीमुखं वित विनाशनाय, तस्तमात् शुभं संमुख्यं नारीकेलं”।

अर्थात् नारियल का मुख नीचे की तरफ रखने से शत्रु में वृद्धि होती है ।नारियल का मुख ऊपर की तरफ रखने से रोग बढ़ते हैं। पूर्व की तरफ नारियल का मुख रखने से धन का विनाश होता है। इसलिए नारियल की स्थापना के समय हमेशा इस बात का ध्यान रखनी चाहिए कि उसका मुख साधक की तरफ रहे। ध्यान रहे कि नारियल का मुख उस सिरे पर होता है, जिस तरफ से वह पेड़ की टहनी से जुड़ा होता है।

देवी-देवताओं का कलश में आवाहन

भक्त को अपने दाहिने हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर वरुण आदि देवी-देवताओ का ध्यान और आवाहन करना चाहिए –
ॐ भूर्भुवःस्वःभो वरुण! इहागच्छ, इह तिष्ठ, स्थापयामि, पूजयामि, मम पूजां गृहाण।ओम अपां पतये वरुणाय नमः बोलकर अक्षत और पुष्प कलश पर छोड़ देना चाहिए। पुनः दाहिने हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर चारो वेद, तीर्थो, नदियों, सागरों, देवी और देवताओ के आवाहन करना चाहिए उसके बाद फिर अक्षत और पुष्प लेकर कलश की प्रतिष्ठा करें।

कलशे वरुणाद्यावाहितदेवताः सुप्रतिष्ठता वरदा भवन्तु।

तथा

ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः इस मंत्र के उच्चारण के साथ ही अक्षत और पुष्प कलश के पास छोड़ दे।

वरुण आदि देवताओ को

ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमःध्यानार्थे पुष्पं समर्पयामि।

आदि मंत्र का उच्चारण करते हुए पुष्प समर्पित करे पुनः निम्न क्रम से वरुण आदि देवताओ को अक्षत रखे, जल चढ़ाये, स्नानीय जल, आचमनीय जल चढ़ाये, पंच्चामृत स्नान कराये, जल में मलय चन्दन मिलाकर स्नान कराये, शुद्ध जल से स्नान कराये, आचमनीय जल चढ़ाये, वस्त्र चढ़ाये, यज्ञोपवीत चढ़ाये, उपवस्त्र चढ़ाये, चन्दन लगाये, अक्षत समर्पित करे, फूल और फूलमाला चढ़ाये, द्रव्य समर्पित करे, इत्र आदि चढ़ाये, दीप दिखाए, नैवेद्य चढ़ाये, सुपारी, इलायची, लौंग सहित पान चढ़ाये, द्रव्य-दक्षिणा चढ़ाये(समर्पयामि) इसके बाद आरती करे। पुनः पुस्पाञ्जलि समर्पित करे, प्रदक्षिणा करे तथा दाहिने हाथ में पुष्प लेकर प्रार्थना करे और अन्त में

ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, प्रार्थनापूर्वकं अहं नमस्कारान समर्पयामि।

इस मंत्र से नमस्कारपूर्वक फूल समर्पित करे। पुनः हाथ में जल लेकर अधोलिखित वाक्य का उच्चारण कर जल कलश के पास छोड़ते हुए समस्त पूजन-कर्म वरुणदेव को निवेदित करना चाहिए।

कृतेन अनेन पूजनेन कलशे वरुणाद्यावाहितदेवताः प्रीयन्तां न मम।

अखंड ज्योति

नवरात्री के प्रथम दिन ही अखंड ज्योति जलाई जाती है जो नौ दिन तक निरंतर जलती रहती है। अखंड ज्योति का बीच में बुझना अच्छा नही माना जाता है। अतः इस बात का अवश्य ही धयान रखना चाहिए की अखंड ज्योति न बुझे।

देवी पूजन सामग्री

माँ दुर्गा की सुन्दर प्रतिमा, माता की प्रतिमा स्थापना के लिए चौकी, लाल वस्त्र, कलश/ घाट, नारियल का फल, पांच पल्लव आम का, फूल, अक्षत, मौली, रोली, पूजा के लिए थाली, धुप और दशांग, गंगा का जल, कुमकुम, गुलाल पान, सुपारी, चौकी, दीप, नैवेद्य, कच्चा धागा, दुर्गा सप्तसती किताब, चुनरी, पैसा, माता दुर्गा की विशेष कृपा हेतु संकल्प तथा षोडशोपचार पूजन करने के बाद, प्रथम प्रतिपदा तिथि को, नैवेद्य के रूप में गाय का घी माता को अर्पित करना चाहिए तथा पुनः वह घी किसी ब्राह्मण को दे देना चाहिए।

नवरात्रके प्रथम दिन कलश (घट) की स्थापना के समय देवी का आवाहन एवं पूजन इस प्रकार करें

संकल्प

संकल्प में पुष्प, फल, सुपारी, पान, चांदी कासिक्का, नारियल (पानी वाला), मिठाई, मेवा, थोड़ी-थोड़ी मात्रा में लेकर संकल्प मंत्र बोलें –

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, ॐ अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपेभरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य (अपने नगर/गांव का नामलें) क्षेत्रे बौद्धावतारे वीर विक्रमादित्यनृपते(वर्तमानसंवत), तमेऽब्दे प्रमादी नाम संवत्सरे उत्तरायणे(वर्तमान)वसंत ऋतो महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे(वर्तमान) मासे (वर्तमान) पक्षे (वर्तमान) तिथौ(वर्तमान) वासरे (गोत्र का नाम लें) गोत्रोत्पन्नोऽहंअमुकनामा (अपना नाम लें) सकलपापक्षयपूर्वकंसर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया-श्रुतिस्मृत्योक्तफलप्राप्त्यर्थं मनेप्सित कार्य सिद्धयर्थं श्रीदुर्गा पूजनं च अहं क​रिष्ये। तत्पूर्वागंत्वेन ​निर्विघ्नतापूर्वक कार्य ​सिद्धयर्थं यथा​मिलितोपचारेगणप​ति पूजनं क​रिष्ये।

दुर्गा पूजन से पहले गणेश पूजन –

हाथ में पुष्प लेकर गणपति का ध्यान करें|और श्लोकपढें –

गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बूफलचारुभक्षणम्। उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामिविघ्नेश्वरपादपंकजम्।

आवाहन: हाथ में अक्षत लेकर

आगच्छ देव देवेश, गौरीपुत्र ​विनायक।

तवपूजा करोमद्य, अत्रतिष्ठ परमेश्वर॥

ॐ श्री ​सिद्धि ​विनायकाय नमः इहागच्छ इह तिष्ठकहकर अक्षत गणेश जी पर चढा़ दें।

हाथ में फूल लेकर-ॐ श्री ​सिद्धि ​विनायकाय नमः आसनं समर्पया​मि|

अर्घा में जल लेकर बोलें -ॐ श्री ​सिद्धि ​विनायकाय नमः अर्घ्यं समर्पया​मि|

आचमनीय-स्नानीयं-ॐ श्री ​सिद्धि ​विनायकाय नमः आचमनीयं समर्पया​मि |

वस्त्र लेकर-ॐ श्री ​सिद्धि ​विनायकाय नमः वस्त्रं समर्पया​मि|

यज्ञोपवीत-ॐ श्री ​सिद्धि ​विनायकाय नमः यज्ञोपवीतं समर्पया​मि |

पुनराचमनीयम्-ॐ श्री ​सिद्धि ​विनायकाय नमः |

रक्त चंदन लगाएं: इदम रक्त चंदनम् लेपनम् ॐ श्री ​सिद्धि ​विनायकाय नमः |

श्रीखंड चंदन बोलकर श्रीखंड चंदन लगाएं|

सिन्दूर चढ़ाएं-

“इदं सिन्दूराभरणं लेपनम् ॐ श्री ​सिद्धि ​विनायकाय नमः|

दूर्वा और विल्बपत्र भी गणेश जी को चढ़ाएं|

पूजन के बाद गणेश जी को प्रसाद अर्पित करें:

ॐ श्री ​सिद्धि विनायकाय नमः इदं नानाविधिनैवेद्यानि समर्पयामि |

मिष्ठान अर्पित करने के लिए मंत्र बोलें

शर्करा खण्ड खाद्या​नि द​धि क्षीर घृता​नि च|

आहारो भक्ष्य भोज्यं गृह्यतां गणनायक।

प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन करायें- इदं आचमनीयं ॐ श्री ​सिद्धि ​विनायकाय नमः|

इसके बाद पान सुपारी चढ़ायें-

ॐ श्री ​सिद्धि ​विनायकाय नमः ताम्बूलं समर्पया​मि |

अब फल लेकर गणपति पर चढ़ाएं-

ॐ श्री ​सिद्धि ​विनायकाय नमः फलं समर्पया​मि|

ॐ श्री ​सिद्धि ​विनायकाय नमः द्रव्य समर्पया​मि|

अब ​विषम संख्या में दीपक जलाकर ​निराजन करेंऔर भगवान की आरती गायें।

हाथ में फूल लेकर गणेश जी को अ​र्पित करें, ​फिर तीन प्रद​क्षिणा करें।

दुर्गा पूजन

सबसे पहले माता दुर्गा का ध्यान करें

सर्व मंगल मागंल्ये ​शिवे सर्वार्थ सा​धिके ।

शरण्येत्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते ॥

आवाहन-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। दुर्गादेवीमावाहया​मि॥

आसन-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। आसानार्थेपुष्पाणि समर्पया​मि।

अर्घ्य-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। हस्तयो: अर्घ्यंसमर्पया​मि॥

आचमन-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। आचमनं समर्पया​मि॥

स्नान-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। स्नानार्थं जलंसमर्पया​मि॥

स्नानांग आचमन-

स्नानान्ते पुनराचमनीयं जलं समर्पया​मि।

पंचामृत स्नान-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। पंचामृतस्नानंसमर्पया​मि॥

गन्धोदक-स्नान-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। गन्धोदकस्नानंसमर्पया​मि॥

शुद्धोदक स्नान-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। शुद्धोदकस्नानंसमर्पया​मि॥

आचमन- शुद्धोदकस्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पया​मि।

वस्त्र-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। वस्त्रं समर्पया​मि ॥वस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पया​मि।

सौभाग्य सू़त्र-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। सौभाग्य सूत्रंसमर्पया​मि ॥

चन्दन-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। चन्दनं समर्पया​मि॥

ह​रिद्राचूर्ण-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। ह​रिद्रां समर्पया​मि॥

कुंकुम-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। कुंकुम समर्पया​मि॥

​सिन्दूर-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। ​सिन्दूरं समर्पया​मि॥

कज्जल-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। कज्जलं समर्पया​मि।

आभूषण-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। आभूषणा​निसमर्पया​मि ॥

पुष्पमाला-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। पुष्पमाला समर्पया​मि ॥

धूप-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। धूपमाघ्रापया​मि॥

दीप-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। दीपं दर्शया​मि॥

नैवेद्य-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। नैवेद्यं ​निवेदया​मि॥नैवेद्यान्ते ​त्रिबारं आचमनीय जलं समर्पया​मि।

फल-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। फला​नि समर्पया​मि॥

ताम्बूल-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। ताम्बूलं समर्पया​मि॥

द​क्षिणा-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। द्रव्यद​क्षिणां समर्पया​मि॥

आरती-

श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। आरा​र्तिकंसमर्पया​मि॥

प्रदक्षिणा

“यानि कानि च पापानी जन्मान्तर कृतानि च।

तानी सर्वानि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे॥

प्रदक्षिणा समर्पयामि।“

प्रदक्षिणा करें (अगर स्थान न हो तो आसन पर खड़े-खड़े ही स्थान पर घूमे)

क्षमा प्रार्थना

न मंत्रं नोयंत्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः ।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ॥
विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् ।
तदेतत्क्षतव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः ।
मदीयोऽयंत्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत् क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥
जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया ।
तथापित्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदप कुमाता न भवति ॥
परित्यक्तादेवा विविध​विधिसेवाकुलतया
मया पंचाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि ।
इदानीं चेन्मातस्तव कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बोदर जननि कं यामि शरण् ॥
श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातंको रंको विहरति चिरं कोटिकनकैः ।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ ॥
चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपतहारी पशुपतिः ।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम् ॥
न मोक्षस्याकांक्षा भवविभव वांछापिचनमे
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः ।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडाणी रुद्राणी शिवशिव भवानीति जपतः ॥
नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः
किं रूक्षचिंतन परैर्नकृतं वचोभिः ।
श्यामे त्वमेव यदि किंचन मय्यनाथे
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव ॥
आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं
करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि ।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः
क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ॥
जगदंब विचित्रमत्र किं परिपूर्ण करुणास्ति चिन्मयि ।
अपराधपरंपरावृतं नहि मातासमुपेक्षते सुतम् ॥
मत्समः पातकी नास्तिपापघ्नी त्वत्समा नहि।
वं ज्ञात्वा महादेवियथायोग्यं तथा कुरु ॥

इसके बाद थाली में दीपक पुष्प सजाकर माँ की आरती करें

दुर्गा जी की आरती (1)

जगजननी जय! जय! माँ! जगजननी जय! जय!
भयहारिणी, भवतारिणी, भवभामिनि जय जय।
तू ही सत्-चित्-सुखमय, शुद्ध ब्रह्मरूपा।
सत्य सनातन, सुन्दर, पर-शिव सुर-भूपा॥
आदि अनादि, अनामय, अविचल, अविनाशी।
अमल, अनन्त, अगोचर, अज आनन्दराशी॥
अविकारी, अघहारी, अकल कलाधारी।
कर्ता विधि, भर्ता हरि, हर संहारकारी॥
तू विधिवधू, रमा, तू उमा महामाया।
मूल प्रकृति, विद्या तू, तू जननी जाया॥
राम, कृष्ण तू, सीता, ब्रजरानी राधा।
तू वाँछाकल्पद्रुम, हारिणि सब बाघा॥
दश विद्या, नव दुर्गा नाना शस्त्रकरा।
अष्टमातृका, योगिनि, नव-नव रूप धरा॥
तू परधामनिवासिनि, महाविलासिनि तू।
तू ही श्मशानविहारिणि, ताण्डवलासिनि तू॥
सुर-मुनि मोहिनि सौम्या, तू शोभाधारा।
विवसन विकट सरुपा, प्रलयमयी, धारा॥
तू ही स्नेहसुधामयी, तू अति गरलमना।
रत्नविभूषित तू ही, तू ही अस्थि तना॥
मूलाधार निवासिनि, इह-पर सिद्धिप्रदे।
कालातीता काली, कमला तू वरदे॥
शक्ति शक्तिधर तू ही, नित्य अभेदमयी।
भेद प्रदर्शिनि वाणी विमले! वेदत्रयी॥
हम अति दीन दु:खी माँ! विपत जाल घेरे।
हैं कपूत अति कपटी, पर बालक तेरे॥
निज स्वभाववश जननी! दयादृष्टि कीजै।
करुणा कर करुणामयी! चरण शरण दीजै॥

दुर्गा जी की आरती (2)

जय अम्बे गौरी मैया जय श्यामा गौरी ।
तुमको निशदिन ध्यावत हरि ब्रह्मा शिवरी ।।
मांग सिन्दूर विराजत टीको मृ्ग मद को ।
उच्चवल से दोऊ नैना चन्द्र बदन नीको।
कनक समान कलेवर रक्ताम्बर राजै।
रक्त पुष्प गलमाला कंठन पर साजै।।
केहरि वाहन राजत खडग खप्पर थारी
सुर नर मुनि जन सेवत तिनके दु:ख हारी।।
कानन कुण्डली शोभित नाशाग्रे मोती ।।
कोटिक चन्द्र दिवाकर राजत सम ज्योति।
शुम्भ निशुम्भ विदारे महिषासुर घाती ।
घूम्र विलोचन नैना निशिदिन मदमाती ।
चौंसठ योगिन गावन नृ्त्य करत भैरूं ।
बाजत ताल मृ्दंगा अरू बाजत डमरू।।
भुजा चार अति शोभित खडग खप्पर धारी ।
मन वांछित फल पावत सेवत नर नारी ।।
कंचन थाल विराजत अगर कपूर बाती ।
श्री मालकेतु में राजत कोटि रत्न ज्योति।।
श्री अम्बे की आरती जो कोई नर गावै।
कहत शिवानन्द स्वामी, सुख सम्पति पावै।।

आरती के बाद माँ को शाष्टांग प्रणाम कर प्रसाद को बांट दें। भक्त प्राय: पूरे नवरात्र उपवास रखते हैं. सम्पूर्ण नवरात्रव्रत के पालन में असमर्थ लोगों के लिए सप्तरात्र, पंचरात्र, युग्मरात्र और एकरात्रव्रत का विधान भी है. प्रतिपदा से सप्तमी तक उपवास रखने से सप्तरात्र-व्रत का अनुष्ठान होता है.

अष्टमी के दिन माता को हलुवा और चने का भोग लगाकर कुंवारी कन्याओं को खिलाते हैं तथा अन्त में स्वयं प्रसाद ग्रहण करके व्रत का पारण (पूर्ण) करते हैं.

नवरात्रके नौ दिन साधना करने वाले साधक प्रतिपदा तिथि के दिन शैलपुत्री की, द्वितीया में ब्रह्मचारिणी, तृतीया में चंद्रघण्टा, चतुर्थी में कूष्माण्डा, पंचमी में स्कन्दमाता, षष्ठी में कात्यायनी, सप्तमी में कालरात्रि, अष्टमी में महागौरी तथा नवमी में सिद्धिदात्री की पूजा करते हैं. तथा दुर्गा जी के १०८ नामों को मंत्र रूप में उसका अधिकाधिक जप करें।

विशेष

यह पूजन विधि जिन साधको को वैदिक मंत्रों का ज्ञान नही है अथवा जिनके पास पूजा के लिये उपयुक्त समय नही है उनकी भावनाओं एवं यहाँ शब्द सीमा को ध्यान में रखकर बनाई गई है विस्तृत वैदिक मंत्रों से पूजन विधि जिसे आवश्यकता हो उसे व्यक्तिगत रूप से बतायी जाएगी।

नवरा‍त्रि की कथा

नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है। जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं।

प्रथमं शैलपुत्री च
द्वितीयं ब्रह्माचारिणी।
तृतीय चंद्रघण्टेति
कुष्माण्डेति चतुर्थकम्।
पंचमं स्कन्दमातेति
षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रि
महागौरीति चाऽष्टम्।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिताः।

नवरात्र शब्द से ‘नव अहोरात्रों (विशेष रात्रियां) का बोध’ होता है। इस समय शक्ति के नव रूपों की उपासना की जाती है क्योंकि ‘रात्रि’ शब्द सिद्धि का प्रतीक माना जाता है। भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों ने रात्रि को दिन की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है। यही कारण है कि दीपावली, होलिका, शिवरात्रि और नवरात्र आदि उत्सवों को रात में ही मनाने की परंपरा है। यदि, रात्रि का कोई विशेष रहस्य न होता तो ऐसे उत्सवों को रात्रि न कह कर दिन ही कहा जाता। जैसे- नवदिन या शिवदिन। लेकिन हम ऐसा नहीं कहते।

नवरात्र के वैज्ञानिक महत्व को समझने से पहले हम नवरात्र को समझ लेते हैं।

मनीषियों ने वर्ष में दो बार नवरात्रों का विधान बनाया है- विक्रम संवत के पहले दिन अर्थात चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (पहली तिथि) से नौ दिन अर्थात नवमी तक। इसी प्रकार इसके ठीक छह मास पश्चात् आश्विन मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी अर्थात विजयादशमी के एक दिन पूर्व तक नवरात्र मनाया जाता है।

लेकिन, फिर भी सिद्धि और साधना की दृष्टि से शारदीय नवरात्रों को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। इन नवरात्रों में लोग अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति संचय करने के लिए अनेक प्रकार के व्रत, संयम, नियम, यज्ञ, भजन, पूजन, योग-साधना आदि करते हैं। यहां तक कि कुछ साधक इन रात्रियों में पूरी रात पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर आंतरिक त्राटक या बीज मंत्रों के जाप द्वारा विशेष सिद्धियां प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।

जबकि मनीषियों ने रात्रि के महत्व को अत्यंत सूक्ष्मता के साथ वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में समझने और समझाने का प्रयत्न किया। अब तो यह एक सर्वमान्य वैज्ञानिक तथ्य भी है कि रात्रि में प्रकृति के बहुत सारे अवरोध खत्म हो जाते हैं। हमारे ऋषि-मुनि आज से कितने ही हजारों-लाखों वर्ष पूर्व ही प्रकृति के इन वैज्ञानिक रहस्यों को जान चुके थे।

आप अगर ध्यान दें तो पाएंगे कि अगर दिन में आवाज दी जाए, तो वह दूर तक नहीं जाती है, किंतु यदि रात्रि में आवाज दी जाए तो वह बहुत दूर तक जाती है।

इसके पीछे दिन के कोलाहल के अलावा एक वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि दिन में सूर्य की किरणें आवाज की तरंगों और रेडियो तरंगों को आगे बढ़ने से रोक देती हैं।

आपने खुद भी महसूस किया होगा कि कम शक्ति के रेडियो स्टेशनों को दिन में पकड़ना अर्थात सुनना मुश्किल होता है जबकि सूर्यास्त के बाद छोटे से छोटा रेडियो स्टेशन भी आसानी से सुना जा सकता है।

इसका वैज्ञानिक सिद्धांत यह है कि सूर्य की किरणें दिन के समय रेडियो तरंगों को जिस प्रकार रोकती हैं ठीक उसी प्रकार मंत्र जाप की विचार तरंगों में भी दिन के समय रुकावट पड़ती है।

इसीलिए ऋषि-मुनियों ने रात्रि का महत्व दिन की अपेक्षा बहुत अधिक बताया है। मंदिरों में घंटे और शंख की आवाज के कंपन से दूर-दूर तक वातावरण कीटाणुओं से रहित हो जाता है।

यही रात्रि का तर्कसंगत रहस्य है। जो इस वैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए रात्रियों में संकल्प और उच्च अवधारणा के साथ अपनी शक्तिशाली विचार तरंगों को वायुमंडल में भेजते हैं, उनकी कार्यसिद्धि अर्थात मनोकामना सिद्धि, उनके शुभ संकल्प के अनुसार उचित समय और ठीक विधि के अनुसार करने पर अवश्य होती है।

वैज्ञानिक आधार

नवरात्र के पीछे का वैज्ञानिक आधार यह है कि पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा काल में एक साल की चार संधियां हैं जिनमें से मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक संभावना होती है।

ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियां बढ़ती हैं। अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए तथा शरीर को शुद्ध रखने के लिए और तन-मन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया का नाम ‘नवरात्र’ है।

अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा सेसे नवमी की दोपहर तक व्रत नियम चलने से नौ रात यानी ‘नवरात्र’ नाम सार्थक है। चूंकि यहां रात गिनते हैं इसलिए इसे नवरात्र यानि नौ रातों का समूह कहा जाता है।

रूपक के द्वारा हमारे शरीर को नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है और, इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है।

इन मुख्य इन्द्रियों में अनुशासन, स्वच्छ्ता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में, शरीर तंत्र को पूरे साल के लिए सुचारू रूप से क्रियाशील रखने के लिए नौ द्वारों की शुद्धि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है। इनको व्यक्तिगत रूप से महत्व देने के लिए नौ दिन, नौ दुर्गाओं के लिए कहे जाते हैं।

हालांकि शरीर को सुचारू रखने के लिए विरेचन, सफाई या शुद्धि प्रतिदिन तो हम करते ही हैं किन्तु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए हर ६ माह के अंतर से सफाई अभियान चलाया जाता है जिसमें सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुद्धि, साफ-सुथरे शरीर में शुद्ध बुद्धि, उत्तम विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्रता और क्रमश: मन शुद्ध होता है, क्योंकि स्वच्छ मन मंदिर में ही तो ईश्वर की शक्ति का स्थायी निवास होता है।

चैत्र और आश्विन नवरा‍त्रि ही मुख्य माने जाते हैं इनमें भी देवी भक्त आश्विन नवरा‍त्रि का बहुत महत्व है। इनको यथाक्रम वासंती और शारदीय नवरात्र कहते हैं। इनका आरंभ चैत्र और आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को होता है। ये प्रतिपदा ‘सम्मुखी’ शुभ होती है।

दिन का महत्व:

नवरात्रि वर्ष में चार बार आती है। जिसमे चैत्र और आश्विन की नवरात्रियों का विशेष महत्व है। चैत्र नवरात्रि से ही विक्रम संवत की शुरुआत होती है। इन दिनों प्रकृति से एक विशेष तरह की शक्ति निकलती है। इस शक्ति को ग्रहण करने के लिए इन दिनों में शक्ति पूजा या नवदुर्गा की पूजा का विधान है। इसमें मां की नौ शक्तियों की पूजा अलग-अलग दिन की जाती है। पहले दिन मां के शैलपुत्री स्वरुप की उपासना की जाती है। इस दिन से कई लोग नौ दिनों या दो दिन का उपवास रखते हैं।

पहले दिन की पूजा का विधान:

इस दिन से नौ दिनों का या दो दिनों का व्रत रखा जाता है। जो लोग नौ दिनों का व्रत रखेंगे वो दशमी को पारायण करेंगे। जो पहली और अष्टमी को उपवास रखेंगे वो नवमी को पारायण करेंगे। इस दिन कलश की स्थापना करके अखंड ज्योति भी जला सकते हैं। प्रातः और सायंकाल दुर्गा सप्तशती का पाठ करें और आरती भी करें।

अगर सप्तशती का पाठ नहीं कर सकते तो नवार्ण मंत्र का जाप करें। पूरे दस दिन खान-पान आचरण में सात्विकता रखें। मां को आक, मदार, दूब और तुलसी बिल्कुल न चढ़ाएं। बेला, चमेली, कमल और दूसरे पुष्प मां को चढ़ाए जा सकते हैं।

नवरात्रि व्रत कथा

एक समय की बात है बृहस्पति जी ब्रह्मा जी से कहते हैं कि ब्रह्मन ! आप अत्यंत बुद्धिमान, सर्वशास्त्र और चारों वेदों को जानने वालों में सबसे श्रेष्ठ हैं. हे प्रभु कृपया कर मेरा कथन भी सुनिए! चैत्र व आश्विन माह के शुक्ल पक्ष में नवरात्र का व्रत व उत्सव क्यूँ किया जाता है? इस व्रत का क्या फल मिलता है? पहले इस व्रत को किसने किया था? बृहस्पति जी का कथन सुनकर ब्रह्माजी बोले – बृहस्पते! तुमने बहुत ही अच्छा प्रश्न किया है. जो मनुष्य मनोरथ पूर्ण करने वाली दुर्गा, महादेवी, सूर्य और नारायण का ध्यान करते हैं वे मनुष्य धन्य हैं. नवरात्र का यह पर्व सम्पूर्ण कामनाओं को पूरा करने वाला है।

ब्रह्माजी आगे कहते हैं कि – बृहस्पते! जिसने सबसे पहले इस नवरात्र महाव्रत को किया है उसका पवित्र इतिहास मैं तुम्हें सुनाता हूँ, तुम इसे ध्यानपूर्वक सुनो. ब्रह्माजी कहते हैं – एक नगर था जिसका नाम पीठत था, उसमें अनाथ नाम का ब्राह्मण निवास करता था. वह भगवती दुर्गा का अनन्य भक्त था. संपूर्ण सद्गुणों से युक्त एक कन्या ने उसके यहाँ जन्म लिया. मानों ब्रह्मा की सबसे पहली रचना हो वह, उसका नाम सुमति रखा गया. सुमति अपनी सहेलियों के साथ ऎसे बड़ी होने लगी जैसे शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की कलाएँ बढ़ रही हों।

सुमति के पिता नियम से प्रतिदिन दुर्गा की पूजा तथा हवन किया करते थे और उस समय सुमति भी वहाँ उपस्थित रहती थी. एक दिन सुमति अपनी सहेलियों के साथ खेल में मग्न हो गई और भगवती के पूजन में शामिल नहीं हुई. उसके पिता को सुमति पर बहुत क्रोध आया और क्रोध में आकर कहने लगे कि हे दुष्ट पुत्री! आज तुम भगवती के पूजन में शामिल नहीं हुई हो इसलिए मैं तुम्हारा विवाह किसी कुष्ठी व दरिद्र मनुष्य से कर दूंगा. पिता की बातों से पुत्री को कष्ट पहुंचा और कहने लगी कि हे पिता ! मैं आपकी पुत्री हूँ और आपके अधीन हूँ इसलिए आप मेरा विवाह जिस किसी से कराना चाहे करा सकते हैं क्योंकि होना तो वही है जो मेरे भाग्य में लिखा है. मुझे तो भाग्य पर पूर्ण विश्वास है।

सुमति कहती है कि मनुष्य कितने मनोरथों को पूरा करना चाहता है लेकिन होता तो वही है जो भाग्य विधाता भाग्य में लिखकर देते हैं. जो जैसा कर्म करता है उसको फल भी उन कर्मो के अनुसार ही मिलते हैं. मनुष्य के हाथ में केवल कर्म करना लिखा है और उसका फल देना भगवान के हाथ में होता है. अपनी कन्या के मुख से ये निर्भयपूर्ण बातें सुनकर ब्राह्मण का क्रोध बढ़ जाता है और अपनी पुत्री का विवाह एक कुष्ठ रोगी से कर देता है और कहता है कि अब जाओ और अपने कर्म का फल भोगो. मैं भी देखता हूँ कि तुम भाग्य के भरोसे रहकर कैसे जीवनयापन करती हो?

पिता के वचनों को सुन सुमति मनन करने लगी कि मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे ऎसा पति मिला और अपने दुखों पर विचार करती हुई सुमति वन की ओर चल पड़ी. उस भयानक वन में कुशा पर रात बिताई. गरीब सुमति की हालत देखकर देवी भगवती उसके पूर्व के पुण्यों को देखती हुई उसके सामने प्रकट होती हैं और कहती हैं – हे दीन ब्राह्मणी ! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वह वर माँग सकती हो, मैं तुम्हें सब दूँगी. भगवती दुर्गा के वचन सुनकर सुमति कहने लगी – आप कौन है? जो मुझ पर प्रसन्न हैं. अपनी दीन दृष्टि से आप मुझे कृतार्थ करें. ब्राह्मणी की बात सुनकर देवी कहने लगी कि मैं आदि शक्ति हूँ, मैं ही ब्रह्मा, विद्या और सरस्वती हूँ. प्रसन्न होने पर मैं प्राणियों का दुख दूर कर उन्हें सुख प्रदान करती हूँ. मैं तुझसे तेरे पूर्व पुण्यों के कारण प्रसन्न हूँ।

देवी कहती हैं कि तुम पूर्व जन्म में निषाद की पत्नी थी और अत्यधिक पतिव्रता थी. एक दिन तेरे पति निषाद ने चोरी की और इस चोरी में निषाद के साथ सिपाहियों ने तुम्हे भी पकड़ लिया. तुम दोनों को जेल में बंद कर दिया और भोजन भी नहीं दिया. उन दिनों तुमने ना कुछ खाया और ना ही कुछ पीया. इस प्रकार नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया. भगवती बोली कि हे देवी ! उन नौ दिनों के व्रत के प्रभाव से मैं प्रसन्न हूँ और तुम्हें मनोवाँछित वस्तु दे रही हूँ. तुम जो चाहे माँग सकती हो. भगवती की बात सुनकर ब्राह्मणी बोली – आपको मैं शत-शत प्रणाम करती हूँ. आप मेरे पति पर कृपा करें और उनके कोढ़ को दूर करें. इस पर देवी कहती हैं कि उन दिनों तुमने जो व्रत किया था उसमें से एक दिन के व्रत का पुण्य अपने पति के रोग को दूर करने के लिए अर्पण करो. मेरे प्रभाव से तेरा पति सोने के शरीर वाला हो जाएगा।

ब्रह्माजी बोले – इस प्रकार देवी का वचन सुन वह ब्राह्मणी बहुत खुश हुई और पति को निरोगी देखने की इच्छा से ठीक है, ऎसे बोली. उसके पति का शरीर भगवती देवी की कृपा से ठीक होकर सोने की कान्ति सा हो गया, मानो उसकी कान्ति के समक्ष चन्द्रमा की कान्ति भी फीकी पड़ गई हो. पति की मनोहर देह को देखकर ब्राह्मणी देवी को अति पराक्रम वाली समझकर स्तुति करने लगी कि हे दुर्गे! आप दुखों को दूर करने वाली, तीनों लोकों के कष्ट हरने वाली, दुखों का निवारण करने वाली, रोगी को निरोगी करने वाली, प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली और दुष्ट मनुष्यों का नाश करने वाली हो. तुम ही सारे जगत की माता व पिता हो. हे अम्बे माँ ! मेरे पिता ने क्रोध में मेरा विवाह एक कुष्ठी के साथ करके घर से निकाल दिया है. पिता की निकाली हुई बेटी को आपने सहारा दिया है।

ब्राह्मणी कहती है कि हे देवी! दुखों के इस सागर से आपने मुझे बाहर निकाला है. हे देवी मैं आपको बारम्बार प्रणाम करती हूँ. ब्रह्माजी बोले – हे बृहस्पते! उस सुमति ने मन से देवी की बहुत स्तुति की और उसकी की हुई स्तुति से देवी को बहुत संतोष हुआ. देवी ने ब्राह्मणी से कहा कि तुम्हारे घर एक अति बुद्धिमान, धनवान, कीर्तिवान और जितेन्द्रिय पुत्र पैदा होगा जिसका नाम उद्दालक होगा. देवी ब्राह्मणी से कहने लगी – हे ब्राह्मणी तेरी कोई और इच्छा हो तो वह माँग सकती हो. ब्राह्मणी कहती है कि हे माँ ! आप अगर मुझसे प्रसन्न हैं तो आप मुझे नवरात्र करने की विधि सविस्तार बताइए. ब्राह्मणी के वचन सुनकर देवी कहती हैं कि मैं तुम्हे संपूर्ण नाशों को दूर करने वाले नवरात्र व्रत की विधि बताती हूँ।

देवी कहती हैं कि इसे ध्यानपूर्वक सुनों – आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नौ दिन तक विधिपूर्वक व्रत करें. यदि दिनभर व्रत नहीं कर सकते तो एक समय का भोजन करें. ब्राह्मणों से पूछकर घटस्थापन करें और वाटिका बनाकर उसको प्रतिदिन जल से सीचें. महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की मूर्त्तियाँ बनाकर उनकी नित्य प्रति विधि विधान से पूजा-अर्चना करें. पुष्पों से अर्ध्य दे और बिजौरा के पुष्प से अर्ध्य देने पर रुप की प्राप्ति होती है. जायफल से कीर्त्ति, दाख से कार्य की सिद्धि होती है. आँवले से सुख व केले से भूषण की प्राप्ति होती है. फलों से अर्ध्य देकर विधि से हवन करें. खांड, घी, गेहूँ, शहद, जौ, तिल, नारियल, बिम्ब, दाख व कदम्ब आदि सामग्रियों से हवन संपन्न करें।

गेहूँ का हवन करने से लक्ष्मी की प्राप्ति, खीर व चम्पा के फूलों से धन व पत्तों से तेज और सुख प्राप्त होता है. आँवले से कीर्ति और केले से पुत्र की प्राप्ति होती है. कमल से राज-सम्मान और दाखों से सुख संपत्ति मिलती है. खांड, घी, नारियल, शहद, जौ व तिल और फलों से होम करने से मनवाँछित वस्तु की प्राप्ति होती है. व्रत करने वाले को स्वभाव में नम्रता रखनी चाहिए. अंत में आचार्य को प्रणाम कर यथाशक्ति उसे दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए. इस महाव्रत को बताई विधि के अनुसार जो भी करता है उसके सारे मनोरथ पूरे होते हैं।

ब्रह्माजी कहते है – हे बृहस्पते! इस प्रकार ब्राह्मणी को इस व्रत की विधि व फल बताकर देवी अन्तर्ध्यान हो गई.जो मनुष्य इस व्रत को करता है वह इस लोक में सुख पाकर अंत में मोक्ष प्राप्त करते हैं. ब्रह्माजी फिर कहते हैं कि हे बृहस्पते! इस व्रत का माहात्म्य मैने तुम्हें बतलाया है! ब्रह्माजी का कथन सुन बृहस्पति आनन्द विभोर हो उठे और ब्रह्माजी जी से कहने लगे – हे ब्रह्माजी ! आपने मुझ पर अति कृपा की है जो आपने मुझे अमृत के समान इस नवरात्री व्रत का माहात्म्य सुनाया है।

नवरात्रि में राशि अनुसार पूजा

नवरात्र के दौरान अन्य नवरात्रों की तरह ही पूजा करनी चाहिए। नौ दिनों के उपवास का संकल्प लेते हुए प्रतिप्रदा यानि पहले दिन घटस्थापना करनी चाहिए। घटस्थापना के बाद प्रतिदिन सुबह और शाम के समय मां दुर्गा की पूजा करनी चाहिए। अष्टमी या नवमी के दिन कन्या पूजन के साथ नवरात्र व्रत का उद्यापन करना चाहिए।

मेष राशि

मेष राशि के जातक शक्ति उपासना के लिए द्वितीय महाविद्या तारा की साधना करें। ज्योतिष के अनुसार इस महाविद्या का स्वभाव मंगल की तरह उग्र है। मेष राशि वाले महाविद्या की साधना के लिए इस मंत्र का जप करें।

मंत्र – ह्रीं स्त्रीं हूं फट्।

वृषभ राशि

वृषभ राशि वाले धन और सिद्धि प्राप्त करने के लिए श्री विद्या यानि षोडषी देवी की साधना करें और इस मंत्र का जप करें।

मंत्र – ऐं क्लीं सौ:।

मिथुन राशि

मिथुन राशि अपना गृहस्थ जीवन सुखी बनाने के लिए मिथुन राशि वाले भुवनेश्वरी देवी की साधना करें। साधना मंत्र इस प्रकार है।

मंत्र – ऐं ह्रीं।

कर्क राशि

इस नवरात्रि पर कर्क राशि वाले कमला देवी का पूजन करें। इनकी पूजा से धन व सुख मिलता है। नीचे लिखे मंत्र का जप करें।

मंत्र – ॐ श्रीं।

सिह राशि

ज्योतिष के अनुसार सिंह राशि वालों को मां बगलामुखी की आराधना करना चाहिए। जिससे शत्रुओं पर विजय मिलती है।

मंत्र – ॐ ह्लीं बगलामुखी देव्यै सर्व दुष्टानाम वाचं मुखं पदम् स्तम्भय जिह्वाम कीलय-कीलय बुद्धिम विनाशाय ह्लीं ॐ नम:।

कन्या राशि

कन्या राशि आप चतुर्थ महाविद्या भुवनेश्वरी देवी की साधना करें आपको निश्चित ही सफलता मिलेगी।

मंत्र – ऐं ह्रीं ऐं

तुला राशि  

तुला राशि वालों को सुख व ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए षोडषी देवी की साधना करनी चाहिए।

मंत्र – ऐं क्लीं सौ:।

वृश्चिक राशि

वृश्चिक राशि वाले तारा देवी की साधना करें। इससे आपको शासकीय कार्यों में सफलता मिलेगी।

मंत्र – श्रीं ह्रीं स्त्रीं हूं फट्।

धनु राशि

धन और यश पाने के लिए धनु राशि वाले कमला देवी के इस मंत्र का जप करें।

मंत्र – श्रीं।

मकर राशि  

मकर राशि के जातक अपनी राशि के अनुसार मां काली की उपासना करें।

मंत्र – क्रीं कालीकाये नम:।

कुंभ राशि

कुंभ राशि वाले भी काली की उपासना करें इससे उनके शत्रुओं का नाश होगा।

मंत्र – क्रीं कालीकाये नम:।

मीन राशि

मीन राशि के जातक सुख समृद्धि के लिए कमला देवी की उपासना करें।

मंत्र – श्री कमलाये नम:।

लिखने कुछ गलती हो तो अज्ञानी समझकर क्षमा करे।

चैत्र नवरात्रि 2023 कलश स्थापना कब करना है?

22 मार्च 2023, बुधवार को घटस्थापना मुहूर्त – 06:16 से 07:30
अवधि 01 घण्टा 14 मिनट्स

चैत्र नवरात्रि अष्टमी 2023 कब है?

इस साल महाअष्टमी 29 मार्च (बुधवार) को है।

चैत्र नवरात्रि नवमी 2023 कब है?

हिंदू पंचांग के अनुसार, इस साल नवमी 30 मार्च (गुरुवार) को है।

चैत्र नवरात्रि पूजा मुहूर्त कब है?

घटस्थापना मुहूर्त – 06:16 से 07:30
अवधि 01 घण्टा 14 मिनट्स

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Gyanchand Bundiwal
Gyanchand Bundiwal

Owner at Gems For Everyone. Gemologist and Astrologer.

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